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ढलानों पर / मिथिलेश श्रीवास्तव

सचमुच
पहली बार देखा
पहाड़ की जिन ढलानों पर
देर तक सूरज नहीं ठहर सकता
उन ढलानों पर
घर बन सकते हैं
तुम्हारी एक आकृति नहीं बन सकती

हम ढलानों पर बनी
सीढ़ियाँ चढ़कर
उस चोटी तक जाना चाहते रहे
जहाँ बेरोकटोक घटाएँ घूमा करती हैं
चोटी के कुछ ही नीचे होते हम
घटाएँ हम पर गरज़कर
देर तक बरसती रहतीं
और ढलानों पर बने सीढ़ीदार रास्तों पर
जलधाराओं के रूप ग्रहण कर
सारी आकृतियाँ बहा ले जाती हैं
हमारी हिम्मत टूट जाती
हम उतर आते
उन्हीं ढलानों से नीचे
जलधाराओं में कुछ ढूँढ़ने कुछ पाने
 
नीचे उतरते ही
धूप निकल आती
जो नहीं ठहरती पर्वतीय-ढलानों पर
देर तक
सिर्फ़ घर रह जाता
जिस तक पहुँचने के लिए
ढलानों पर फिर चढ़ने लगते हम।