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ढोल / शहनाज़ इमरानी

मन्दिर में भजन गाती हैं स्त्रियाँ हर शाम होती है पूजा और धीरे -धीरे बजता ढोल धार्मिक कार्यक्रम हो विवाह, या हो कोई त्योहार वो कमज़ोर लड़का अपनी पूरी ताक़त से बजाता है --- ढोल उसकी काली रंगत और उसके पहनावे का अक्सर ही बनता है मज़ाक़ कहते है उसे ‘हीरो ज़रा दम लगा के बजा’ ख़बरों से बाहर के लोगों में शामिल नफ़रत और गुस्से में पीटता है वो ढोल नहीं होते हैं इनके जीवन में बलात्कार, आत्महत्या और क़त्ल या कोई दुर्घटना जो हो सके अख़बारों में दर्ज नहीं है इनका जीवन मीडिया के कवरेज के लिए इनके साथ कुछ भी हो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता गन्दे लोगों में है इनका शुमार रहती है गाली इनकी ज़ुबान पर पीते हैं शराब ,करते हैं गैंग वार मान लिया गया है इन्हे हिंसक ज़मीन नहीं / पैसा नहीं राजनीतिक विमर्श से कर दिया गया है बाहर ड्रम बीट्स और आर्टिफ़िशियल वाद्ययन्त्रों में भूलते गए हम --- ढोल फेंके गए सिक्कों को ख़ाली जेबों के हवाले कर चल देता है अन्धेरी और बेनाम बस्ती की ओर हमारी मसरूफ़ियत से परे है इसका होना घसीटता चलता है अपने पैरों को गले में लटका रहता ख़ामोश और उदास ढोल।