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तलाश / शशि सहगल

मैं तेरे घर में
इतनी खो गई हूँ कि
अपने आप से बेगानी हो
ढूंढती हूँ खुद को
यहाँ वहाँ।
कभी खोजती हूँ
अलमारी में पड़े कपड़े की
अनखोली तहों में
कहीं छिपे हों पटोले मेरे
शायद वही मुझे मुझसे मिलवा दें
तो कभी
गली में पड़ी रोड़ी को
देखती हूँ बड़े ग़ौर से
तलाशती हूँ उसमें अपने पाँच गीट्टे
पता नहीं वे भी
मुझे मुझसे मिलवाने को
बाट जोह रहे हैं बेसब्री से।
किसी न किसी बहाने
बार-बार झांकती हूँ झरोखों से
कोई बिछड़ा मीत
गुज़र रहा हो शायद
मेरी गली से
जो नज़रों की डोर से बांध कर
ले जाये मुझे
पीपल के पिछवाड़े
या छत की बरसाती की ओट में
मैं, बड़ी बेसब्री से
खुद को तलाशती
बदहवास
भटक रही हूँ
इधर-उधर