Last modified on 23 मार्च 2020, at 22:31

तलाश / संतोष श्रीवास्तव

ये कैसी बेबसी कि
रात भर के लंबे इंतजार
के बाद भी
भटकते रहे लम्हे

ये कैसा फ़लसफ़ा
कि देह के पोर-पोर
तलाशते रहे रात भर
न जाने किस एक अक्षर को
न जाने किस इबारत को

कि जिससे झंकृत
हो जाता है ब्रह्मांड
अपने दूधिया आगोश में
अनगिनत चांद को समेटे
उतर आती है आकाशगंगाएँ

कि वहीं कहीं से
सम्मोहित करता है
शुक्र तारा
मैं अक्षर-अक्षर
पकने लगती हूँ
सम्मोहन की आंच में
धीमे धीमे
उम्र भर