दूर, शांत, शीतल
निश्चल, अकेला तारा
आकाश के
अभूतपूर्व शिखर पर
किन्तु अकेला गुमसुम क्यों?
मैं भी उसी तरह
उससे उतनी ही विपरीत दिशा में
तन्हा, खामोश उसे तकता
जब स्वप्नों में खो जाता संसार
वह मुझे, मैं उसे देख कर मानो
कुछ कहने का प्रयास करते
वह टिमटिमा कर कुछ व्यक्त करता
परंतु मेरी तरह
असहाय, लाचार पाता।
मुझे ज्ञात है वह वेदना
जब मैं खडा़ रह गया
दौड़ती भीड़ में
खोजता रहा उसका साया
जो बिछुड़ गया रोशनी पाकर
अपनी तन्हाई,
खामोशी का रह्स्य
उसे मैंने था बताया
लेकिन वह चुप रहा
जैसे बेजान, जड़ यह तारा
सूर्य प्रकाश के लिये आतुर
विलुप्त होने की प्रतीक्षा में
रचनाकाल : 14.08.1987