तुम्हारे साथ
बीते समय की स्मृतियों को जीते
कुछ इस तरह बिलमा रहता हूँ
अपने आप में,
जिस तरह दरख्त अपने पूरे आकार
और अदीठ जड़ों के सहारे
बना रहता है धरती की कोख में ।
जिस तरह
मौसम की पहली बारिश के बाद
बदल जाती है
धरती और आसमान की रंगत
ऋतुओं के पार
बनी रहती है नमी
तुम्हारी आँख में -
इस घनी आबादी वाले उजाड़ में
ऐसे ही लौट कर आती
तुम्हारी अनगिनत यादें -
अचरज करता हूँ
तुम्हारा होना
कितना कुछ जीता है मुझ में
इस तरह !