नदी की लहरों पर
ख़ुशी की धूप उगती है
जब वह छूती है
तुम्हारी आवाज़
उसकी उदास लहरें
पहन लेतीं हैं तुम्हारी महक
नदी नहाती है अपनी ही
भूली बिसरी चाहतें
भीग जाती है नदी
उस धूप की मिठास में
स्थगित धुनें सुर साध लेती हैं
और नदी उस सरगमी नमी मे
उमगकर डूब जाती है
बर्फ़ीले सपनों को मिलती है
नरम धूप की अंकवार
हाँ तुम्हारे आवाज़ की छुवन
नदी के भीतर पिघला देती है
सुखों का पूरा ग्लेशियर ।