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दफ़्तर / अज्ञेय

शाम
बाहर देख आया हूँ (और भी जाते हैं,
बीड़ी-सिगरेट फूँक आते हैं या कि पान खाते हैं
और जिस देह में है ख़ून नहीं, रसना में रस नहीं,
उस की लाल पीक से दीवारें रँग आते हैं)
मैं भी देख आया हूँ-
वही तो तारे हैं, वही आकाश है।

किन्तु यहाँ आस-पास घुमडऩ है, त्रास है
मशीनों की गडग़ड़ाहट में
भोली (कितनी भोली) आत्माओं की अनुरणन की मोहमयी प्यास है।

यन्त्र हमें दलते हैं और हम अपने को छलते हैं,
'थोड़ा और खट लो, थोड़ा और पिस लो-
यन्त्र का उद्देश्य तो बस शीघ्र अवकाश, और अवकाश,
एक मात्र अवकाश है!'

बाहर हैं वे-वही तारे, वही एक शुक्र तारा,
वही सूनी ममता से भरा आकाश है!

दिल्ली, 20 मार्च, 1952