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दमित नारी / महेन्द्र भटनागर


मिट्टी-मिट्टी बोल रही है !
बोल रही हैं नंगी काली ऊँची चट्टानें,
बोल रहे हैं सूखे-सूखे रक्तिम नाले,
चीख़ रही है सरिता-सरिता !

लानत है इंसान !
किया तुम्हीं ने नारी पर
अत्याचार प्रहार,
लानत है
युग-युग की चिर संचित संस्कृति,
जिसकी पशुता ने
नारी की अस्मत पर हाथ उठाया !

लानत है मज़हब
जो बनता मानवता का पहरेदार,
जिसने दुर्बलता पर हावी हो,
आज किया मनमाना भक्षक व्यापार !
घृणित ख़ुदा के बोल सभी ;
क्योंकि केवल वे ही ज़िम्मेदार
कि जिनने जन-जन की नस में
भर दिया भयंकर विष
जो निकला फूट
मनुजता की नींव हिला,
जिसकी आज विषैली ज्वाला
कोने-कोने में फैल गयी है;
मन के नैतिक बंधन
जिसने ढीले कर डाले हैं !
सोच नहीं सकता कोई,
पागलपन के उठे बगूले
काँपी धरती, कण-कण काँपा,
आसमान से तारा-तारा काँपा,

पर, रुक न सका
हैवानों का चलता चक्र अरे !
जिसने नारीत्व
धरा पर लुण्ठित कर,
माँ पर हाथ उठाया,
बना दिया विधवा-विधवा !
पुत्रा विहीना !
घायल-घायल
रो-रो सूख गये हैं जिनके आँसू,
सूख गये हैं केश कहीं
ख़ूनी धारों से,
सूख गये हैं होंठ !
तुम्हारी निर्मम आवाज़ों से

भयभीता नारी
गिन-गिनकर
साँसें छोड़ रही है !

वह देश असभ्य -
किये जिसने ऐसे काम,
वह इंसान नहीं इंसान,
पशु से भी बदतर है !
जिसने मातृत्व किया पद-मर्दित,
नारीत्व किया अपमानित,
निर्बल से खिलवाड़ !