नाथ! पड़ा सूना मन-मन्दिर कब उसको अपनाओंगे।
नेत्र थक गये राह देखते कब तुम फिर से आओगे॥
हूँ पगली मतवाल या मैं फिर भी हूँ चरणों की दास।
प्रेम-तरंग हिलोरें लेतीं आओ, एक बार फिर पास॥
मानस-सर के हंस तुम्हीं हो, हो मेरी तन्त्री के तार।
मेरी जीवन-नैय्या के हो कर्णधार, पकड़ो पतवार॥
देकर झूठे धैर्य्य नाथ! अब नहीं मुझे ठग पाओगे।
देर करोगे तो क्या होगा, शून्य कुटी को पाओगे॥