ये इतना ऊँचा पहाड़?
अरे, ऐसे कितने पहाड़
वक्त की चक्की में पिस कर
सड़क की धूल बन गए!
कितनी ऐसी लाशें ज़माने ने
कंधे पर ढो-ढो कर
श्मशान के हवाले कीं-
और कितने ही ऐसे-वैसे मांझी
पत्थरों को काटते-काटते और
लाशों को अपने कंधों पर ढोते-ढोते
और हवाओं के साथ
जीवन का गीत गुनगुनाते
आज भी चल रहे हैं
पहाड़ को काट कर बनाई
दशरथ मांझी वाली उसी
ऊबड़-खाबड़ सड़क पर-
आज भी –
जबकि हम रोज़ रात
आराम से सोते
और रोज़ सुबह
आराम से जागते
और कभी-कभार उन पर
एकाध कविताएँ रचते रहे
बड़े आराम से?