इस न्यून पर टिकता है
चित्त कुछ और थिर, कुछ और भी
बिम्बों के बिना रह सकता हैे
तुम कहो तो तुमसे भी और नहीं
चट्टान की ओर
अपने झरने के लिए आँख उठाए
शान्त हो जाऊँ
या फिर यह भी अधूरी
यहीं, तुम्हारे खाते में चढ़ती
हुई
एक पनीली धूप —
एक अस्वीकार दिन