ग्रंथ कितने पढ़े बहुत डूबे।
भेद जाना अनेक आपा खो।
संत जन की सुनी सभी बातें।
पर न जाना गया प्रभो क्या हो।1।
आप में है अपार बल बूता।
यह सदा ही हमें सुनाता है।
किसलिए काम वह नहीं आता।
जब निबल को सबल सताता है।2।
दानवों के कठोर हाथों से।
सैकड़ों देव-वंश-दीप बुता।
धूल में मिल गये सुजन कितने।
फिर कहाँ आप की रही प्रभुता।3।
शान्त बैठा निरीह पंछी भी।
जो नहीं व्याध बान से बचता।
हो गयी तो कठोरपन की हद।
देख ली आप की दयामयता।4।
सामने बाप औ माँ के ही।
तोड़ते देख बालकों को दम।
लोग लेते पकड़ कलेजा हैं।
क्या कहें आप के हृदय को हम।5।
मर मिटे अन्न के बिना कितने।
कितने ही आधा पेट खा सूतें।
है कहीं यों पड़ा करोड़ों मन।
देखिए आप अपनी करतूतें।6।
बात कहते असंख्य जीवों को।
निधि डुबोता धारा निगलती है।
गिरि उगल आग धवंस करते हैं।
बात यह क्या कभी न खलती है।7।
हैं बनाये गये कुबेर वही।
जो पकड़ते हैं दाँत से पैसा।
तंग मैं हूँ उदार को पाता।
आप का यह प्रपंच है कैसा।8।
क्लेश पर क्लेश है, दुखी पाता।
बहु विकारों भरा मनुज मन है।
रोग का है सदन बना नर-तन।
क्या यही आपका बड़प्पन है।9।
जो भले और हैं बहुत सीधे।
पूछता तक उन्हें नहीं कोई।
है चलाकों की बोलती तूती।
नीति की बेलि है भली बोई।10।
हाथ पाँवों बिना रचे कितने।
है किसी को बना दिया काना।
झीखते हैं बहुत बिना आँखों।
हैं इसी को ही कहते मनमाना।11।
जो चमकते रतन धारा के हैं।
हैं उन्हें करते भोर का तारा।
मूढ़ पाते हैं आयु लोमस की।
आप का ढंग कितना है न्यारा।12।
प्यास जिनकी लहू से बुझती है।
जो निगल और को अघाते हैं।
टूट उन पर न जो पड़ी बिजली।
किसलिए आप प्रभु कहाते हैं।13।
बात जिनकी बड़ी अनूठी है।
पर भरा पेट में हलाहल है।
जो न पीछे को मुख बना उनका।
तो सधा आपका न बुधिबल है।14।
हैं जिन्हें धुन सवार यह रहती।
किस तरह मैं करूँ बुरा किसका।
जो उन्हें आपने न सींग दिया।
तो कहूँ आप की समझ को क्या।15।
जब मनुज-रक्त से सना गारा।
शिर लगाये गये कँगूरों पर।
एक दिन में गले कटे लाखों।
तब सके आप क्यों नहीं कुछकर।16।
जब बनी प्राण-नाशिनी गोली।
जब बनी तोप काल की पोती।
तब रहे देखते बदन किसका।
आप से है हमें कुढ़न होती।17।
देख शूली मसीह को पाते।
देख शर व्याध से विधा हरि-तन।
भू-समाती विलोक सीता को।
आप से फिर गया हमारा मन।18।
छीन लेते हैं आँख का तारा।
लूटते हैं किसी का जीवन-धान।
हैं किसी का सुहाग ले लेते।
है यही आप का निराला पन।19।
पीट दे या कि सर पटक देवे।
कूट डाले न क्यों कोई छाती।
पर टलेगी कभी नहीं होनी।
आप की कुछ कही नहीं जाती।20।
क्यों बनाया गया जगत ऐसा।
हैं सुलझती न गुत्थियाँ जिसकी।
चाल यह दूर की बड़ी गहरी।
आपको छोड़ और है किसकी।21।
हैं बहुत मत, अनेक झगड़े हैं।
आप को मानते नहीं कितने।
हैं सभी ओर उलझनें तो भी।
हम समझते हैं आप हैं जितने।22।
जब कहीं आपकी बिना इच्छा।
डोलता है न एक भी पत्ता।
किसलिए एंच पेंच फिर इतना
जब कि है एक आप की सत्ता।23।
ए सभी खेल जो प्रकृति के हैं।
आप क्या हैं? नहीं बताते क्यों?
जो कलें आप के करों में हैं।
ठीक उनको नहीं चलाते क्यों?।24।