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दिल में घर किए अपना ग़म हज़ार बैठे हैं / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'


दिल में घर किए अपना ग़म हज़ार बैठे हैं
बेख़ुदी में क्यों उनको हम पुकार बैठे हैं

थे जिन्हें गिले शिकवे अब नहीं रहे हमसे
वो हमारी राहों में बेक़रार बैठे हैं

दिल को एक मुद्दत से हम संभाले बैठे थे
आज दिल मुक़द्दर से अपना हार बैठे हैं

तज़करा है क्या दिल का जान अपनी हाज़िर है
मुन्तज़िर इशारे के जाँनिसार बैठे हैं

क्या ख़बर वो ख़्वाबों में कब हमारे अब आएं
हम उन्हें हक़ीक़त में अब उतार बैठे हैं

हाल है बुरा उनका जो हैं आसमानों पर
ग़म नहीं ज़मीं पर कुछ ख़ाक़सार बैठे हैं

कल 'रक़ीब' वो क्या थे आज क्या हैं क्या कहिये
भीड़ में फ़कीरों की ताजदार बैठे हैं