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दीक्षा / विमल राजस्थानी

गुरू गंभीर गिरा ‘बुद्धम् शरणम्‘ ....की असमय गूँजी
थर्रा उठी गृही की, अब तक की अर्जित सब पुँजी
कंगूरे तक लगे डोलने, यह क्या विपदा आयी
असमय आज भिक्षु ने आकर क्यों झोली फैलायी
देकर वचन मुकर ताने की जिनकी वृत्ति रही है
छल-छद्यों की दुरभिसंधि में ही अनुरक्ति रही है
उदर-दरी में वरी प्रतिज्ञा को झुठलाने वाले
जीवन-दीवट पर पापोें के दीप जलाने वाले
ऐसे मानव ही, अधर्म के जनक हुआ करते हैं
धरा डोलती अधमाधम पद जहाँ-जहाँ धरते हैं
जो कृतज्ञ अकृतज्ञ, स्वार्थी कुटिल छली होते हैं
अपने हाथो ही अपने मग में कंटक बोते हैं
जो कुछ भी पास है मनुज के विधि की वह थाती है
दीपक भी अपना न, न अपनी दीपक की बाती है
वसुधैवऽ कुटुम्बकम् का जो मनोभाव रखते है
मानव-जीवन-घट काा मघु मकरंद वही चखते हैं
उनका जीवन धन्य कि जो त्रिभुवन के हो जाते है
सुरभित साँसों के पथ वे सदेह स्वर्ग पाते हैं
दूँ कि न दूँकी उलझन का यह अंत दीखता है रे
मोही, भ्रमित पिता का अंतर-विग चीखता है रे
ध्वनि सुनते ही त्वरित भिक्षु की झोली भरने वाला
गृही आज उठ सका न, पाँवों में श्रृंखला पड़ी है
जिधर देखता शाणकवासी की प्रतिमूर्ति खड़ी है
‘‘असमय सन्यासी का आना,आकर अलख जगाना
साथ न कोई भ्रमण, अकेले भिक्षा पात्र बढ़ाना
इसका सीधा अर्थ प्रतिज्ञा पुरी करनी होगी
आज पुत्र दे कर भिक्षुक की झोली भरनी होगी‘‘
सहज दान सम्पद का, देना पुत्र कठिन होता है
बहुत कठिन होता है जब वह पुत्र श्रमण होता है
‘‘किन्तु दिया था वचन प्राण दे उसे निभाना होगा
तीनो में से एक भिक्षु के संग लगाना होगा‘‘
सद्गृहस्थ होता है वह जो वचन निभा देता है
ऊहापोह को तज,स्वधर्म को ज्योति-विभा देता है
‘‘परम कृपालु भिक्षुवर ने यदि दिया एक ही होता
तिनके-तिनके हो जाता खग-शिशु-विहीन यह खोता
बँधा प्रतिज्ञा-बंधन में मै खंड-खड हो जाता
पिंड-दान करता न, भिक्षु सुत, मक्ति नहीं दे पाता
द्वार खड़ा सन्यासी कब तक बाट तकेगा मेरी
कब तक और चलेगी, कब तक, मन की हेराफेरी‘‘
आगे बढ़, पद पूज भिक्षु के, आँखों मे भर पानी
बोला- ‘‘तीनों में से चुन लें एक ब्रह्म-विज्ञानी !
समझ गया मैं-नहीं टलेंगे आज द्वार से टाले
तभी अकेले आये हैं, जायेंगे प्रभु ! भिक्षा ले‘‘
श्रेष्ठिन् ने द्रुत माया के बंधन झटके से तोडे़
पंक्ति-बद्ध तीनों सुपुत्र आ खडे़ हुए, कर जोडे़
था उपगुप्त कनिष्ठ, भिक्षु ने उसे नयन भर देखा
उगी शात मुख-मंडल पर आलोक-तेज की रेखा
समझ गया आदेश, पिता ने बढ़ा दिया वह बेटा
जैसे-तैसे टुकडे़-टुकडे़ होता हृदय समेटा
शाणकवासी के बाँये उपगुप्त खडे़ थे ऐसे
सूर्य और शशि नभ-मंडल में निकट जडे़ हों जैसे
नत मस्तक उपगुप्त, शीश पर गुरू के कर की छाया
शाणकवासी के कर से ले भिक्षा-पात्र बढ़ाया
हृदय हुए उपगुप्त, प्राप्त कर बौद्ध धर्म की दीक्षा