वसन्त मेरा सहचर है
सखा
धूल-धूसरित वीथिकाएँ
नगर और वसन्तसेना
सब कथा है
बीत कर चली जाने वाली
आँधी की तरह अनन्त में
वसन्त एक खिलखिलाती नदी है
उत्तप्त
पत्तों का रंग
कितने रंगों से बना है
कलान्त पृथ्वी के लिए
दुःख फिर लौट आये तो आये
एक दीपित शिखर पर
खड़ा रहूँगा पलाश की तरह
यहाँ से वहाँ तक देख लूँगा
विलीन होती धूप-छाँह।