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दीमक / मनोज चौहान

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अरसे के बाद ,
जब लौटता हूँ गांव,
तो आधुनिकता की,
चकाचौंध से दूर ,
पुरखों के उस,
पुराने घर में,
महसूसता हूँ ,
जिस आत्मीयता को,
वह रहती है नदारद ,
उस भव्य और टिकाऊ
क्वार्टर की ईमारत में l

घर के एक कोने में पड़ी,
काष्ठ निर्मित अलमारी,
जिसमें सहेजे थे ,
तमाम दस्तावेज,
पाठ्य पुस्तकें,
पत्र-पत्रिकाएं,
और वह ढाढस बंधाते,
पुराने खत दोस्तों के,
समेटे हुए अमिट स्मृतियाँ,
उन संघर्षशील दिनों की l

उत्सुकता से मैंने,
जैसे ही खोली अलमारी,
तो लुट चुकी थी,
वह अमूल्य पूंजी,
जिसे चाहा था,
हमेशा से ही ,
रखना,
सहेज कर ।


दीमक लगी,
वह सब चीजें,
कह रही हो मानों,
कि यही है नियति,
उपेक्षित चीजें हों,
या रिश्ते l

बक्त का दीमक,
कर जाता है जर्जर,
हर उस चीज को,
जिन्हे छोड. दिया,
जाता है,
तन्हा और उपेक्षित ।