Last modified on 20 जुलाई 2014, at 21:56

दीमक / शहनाज़ इमरानी

फैलती जा रही है दीमक रिश्वत की
स्कूल में एडमीशन के लिए, ट्रेन में रिजर्वेशन के लिए
रेड लाइट पर चालान से बचने के लिए
मुक़दमा जीतने और हारने के लिए
नौकरी के लिए, राशनकार्ड, लाइसेंस, पासपोर्ट के लिए,
अस्पताल के लिए, घर के लिए, खाने के लिए, पीने के लिए
साँस लेने के लिए
जुर्म, नाइंसाफ़ी, बेईमानी
अल्फ़ाज़ों ने नए लिबास पहन लिए हैं
महँगाई, ग़रीबी, भूख और बेरोज़गारी से लोग जूझ रहे हैं
हमारे पास ईमानदारी बची नहीं
और बेईमानी एक राष्ट्रीय मजबूरी बन गई
सब की अपनी-अपनी ढपली अपना राग
सम्वेदनशीलता से बचते हुए इंसान के ख़िलाफ़
हर नाइंसाफ़ी को बर्दाश्त करना
कोई तो सीखे क़ैदी ज़हनों में सोच भरना
कोई तो सुलझाए ज़िन्दगी का गणित
ज़िन्दा आदमी कंकाल की तरह
करते है मेहनत ढोते हैं
ईंटे, रेत, सीमेंट
बनते जा रहे है कंक्रीट के जंगल
बगैर, ब्याज़ और क़र्ज़ का बोझ
आदमी का ख़ून पी कर
मानते है कामयाबी का उत्सव
नेपथ्य में काम करने वाले अँधेरे में
रंगमंच पर तालियों की गड़गड़ाहट और शोर ।