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दूभि / शारदा झा

शब्दक अरिपन बनैत अछि कविता
संवेदनाक आंगन मे
जहन झहर' लगैत अछि भावना
तीक्ष्ण उष्ण तप्पत रौद मे, वा
झरझर मूसलाधार बरखा मे
कलमक मोसि बनि क कय
टीपि देनाइ ततबे आवश्यक भ' जाइत छै
जतेक उक्खरि मे देल भिजलाहा धान केँ
कुटिया करब समाठ ल' क'
जाहि सँ बनतअन्न
शांत करब भूख केँ
बड्ड आवश्यक होइत छै
कविता हमर उगि अबैत अछि दूभि जकाँ
गोबर सँ नीपल ढोरल दलान पर
प्रतीक बनि प्रतिरोध केँ
जीवनक संघर्ष जड़ि सँ उपारि देलाक बादो
मरैत नहि अछि
कविक हृदय चीरि क
ओहिना निकलैत अछि कविता
कतबो लगैत हो अनसोहाँत
गड़ैत हो कुश काँट जकाँ पैरक तरबा मे
मुदा जीवनक जिजीविषाक प्रतिमूर्ति
बनैत अछि यैह संवेदना
जीवनमूल्यक पूजा मे
यैह दूभि चढ़ाओल जाइत अछि