नहीं खत्म होती कुछ दूरियाँ
एक लंबे अरसे इत उत
भरपूर जोश में भागते हुए या
रफ़्ता रफ़्ता क़दम बढाने के वावजूद
जस की तस ही रहती हैं
दूर से आँख मिचौली खेलती दूरियाँ
और फिर किसी एक अलसुबह
खिडकी की झिर्री से दबे पाँव रास्ता बना
उनींदे चेहरे को चुकमुक ताकती
पलकों से खेलती एक नन्ही किरन
दे जाती है अचक ही इस सच का आभास
कि शुरू किया था सफर
जिस जगह से... जिस तरह कभी
दरअसल आज भी मौजूद हैं हम
ठीक वैसे ही... वहीँ के वहीँ
इस सच से बाबस्ता
नज़रें दूरियों पर नहीं
एक सवाल लिए
पांव तले जमीं पर टिक गयी है
भला वक्त तब ठहरा था या अब?