Last modified on 16 नवम्बर 2022, at 17:50

दूर्वा / सांत्वना श्रीकांत

कुछ जगहें थीं
जहाँ दूर्वा की तरह उग आना था
"ॐ काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि।
 एवा नो दूर्वे प्रतनुसहस्रेण शतेन च।।"
मंत्रोच्चारण के साथ
तुम्हारे किए हर अनुष्ठान का
अभिन्न भाग होना था
मौली सूत्र जैसे बँधा जाना था
तुम्हारी कलाई पर,
हर बार रक्षा के आश्वासन के साथ।
एक ईश्वरीय शक्ति जैसा
महसूस किया जाना था
लेकिन
जरूरतें उग आईं नाखूनों की तरह
खरोंच-खरोंच
पृथक कर दिया
मुझे समस्त
अपृथक् की जा सकने वाली जगहों से।