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देखियत कालिन्दी अति कारी… / मृत्युंजय



धान की न जाने कै तरह की फ़सल
सिर झुकाए बालियाँ सुनहिल खड़ी हैं

पान के भीटे सलोने,
महक उठती नम हवा की साँस जिनकी हरी ख़ुशबू से
अनगिनत मछलियों से भरे हैं
जल-थल-पोखर-झील-ताल-तालाब-नद-सागर
कोदो पत्तियों का कसैला सा मधुर स्वाद
पान का स्थान लेता बालवृन्दों के लिए
और बखीर, साँवे भात से लटपट

पुरवाइयों को छोर पकड़ा कर नखत पुरुबा
बादलों की आर्द्र चादर गार जाती है
सोख लेते खेत-पाती-आम-ऊसर-ढोर-डँगर
चर-अचर-जड़-जीव-जँगम सब जिसे मन भर

वह कदम का पेड़ जिसकी डाल पर झूले पड़े
सखियों सँग जहाँ अठखेलियाँ करती प्रिया
कमल के पत्र जिनपर भात खाया पेटभर
जिनपर ढुरकती जल बून्द मोती सदृश

बरगद की यह छाँह तृप्तिदाई, घनी, शीतल
और छोटे फल जिन्हें पशु-पक्षियों के साथ
तब मिल-बाँटकर खाया मनुष्यों ने
गर्व से निज पत्तियों का मुकुट धारे
सुपाड़ी, नारियल और खजूर के वृक्ष
मीठी निबौली से जमीं रसवान करते
शानदार दरख़्त

इन पर पल रहे, सँग चल रहे
कीट-तितली-फतिंगे, बहुवर्ण पक्षी
अनेकों पशु, मनुज की निम्न-बहुला वंश शाखा



सब मर रहे तिल-तिल
सबको पीस कर चूरा बनाकर
गिन्नियों में ढालती आयातित मशीनें
राजधानी की पॉश कॉलोनी में उगलती हैं विकास

सपने में भटकते हक़ीक़त के टुकड़े
देश भीतर देश, समय के भीतर हज़ारों काल गतियाँ
यह सब देश यह सब काल पेशी में पकड़ लाए गए
पूँजी के रथ में जुतवाए गए
और यह चला नया रथ सूर्य का
चमक से अन्धा बनाता सब जलाता
आठ घोड़े, आठ कोड़े
पुरबी मजूरों की पीठ पर



दोपहर की तेज़ लू में
सुलगते गुलमुहर की विरल छाया में
थक्के-थक्के धूप के टुकड़े
फटे नक़्शे की थिगलियों से
चिपचिपी काली सड़क पर

सतह पर छा रही हरित-आभाषी कुम्भियाँ-जल की
अपनी मुलायम लचकती लम्बी उँगुलियों से
गर्दन जकड़कर सरसराती धँस रही हैं
मृत मछलियाँ सतह पर उलट बिछ जाती
बाँक पर सूखे चिटखते जलचरों के गलफड़े

सब्ज़ साँवल सलोने छौने रसाल
ज़ख़्म टाँके खुरदुरे गोपाल बाल
जड़ों-शाखों-फलों-पल्लव-मँजरी पर
अब रसायन का विकट हमला हुआ
जहरिठ धुआँ नक़ली बादलों का भास देता
सोख लेता सूर्य-धरती हाथ से पोसे गए द्रव को
बदल देता सब टके में जादुई स्पर्श से

फ़सल की प्राणधारा नहीं बन पाई नहर
तूफ़ान गति से उमगते हैं शहर के नाले उसी में
कूच करते लदे नागर कालिमा और आततायी गन्ध से श्लथ
‘देखियत कालिन्दी अति कारी’
टनों कचरे बोझ से पिसती
गलाजत वहन करती सर-ब-सर
अन्तहीन उबकाइयों की नुकीली लपट
श्वासनलिका से लिपटती पॉलीथिन की लताएँ

विकसित आँकड़ों के रोपवे पर सरसराते
विषैले धुएँ से लिथड़े पहाड़ों की ऊँचानो से
विकासी वारुणी छककर
लड़खड़ाते डगमगाते उतरते हैं नदी-नद
जिनकी गोद खेले बढ़े उमगे
सभ्यता के शिशु कभी
पुलकित किलक आवाज़ मधुरिम बाँसुरी के सुर
नाद, निनाद औ अनुनाद
जहाँ पर एक सँग खाए बटोरे फूल-फल-आखेट
अब नदी के वे पुराने शिशु नदी की धार में ही
प्रवाहित हुए उनकी चीख़ की आवाज़ पानी के तले
दफ़ना रहे पर्यावरणविद-अफ़सर, भगीरथ के नए वंशज
कौड़ियों के वास्ते नीलाम कर दें नदी,
बान्ध डालें रास्ते बीच से ही काट दें धारा

द्वीपों दिगन्तों देश के दर्प भरे दल्लों ने
प्रकृति के दुग्ध कोशों में गड़ाए
विष भरे निज क्लोजपीले दाँत नोकीले
मुन्दी-मुन्दी आँखों से देख रही माँ इन औलादों को
परशुराम को ज्यों देखा हो रेणुका ने
फरसे से कटी हुई गर्दन के रक्त में लहूलुहान



सारे वृक्ष काटे जा चुके
सारी नदी सोखी जा चुकी
सारे खनिज लूटे जा चुके
सारी हवा काली हो चुकी
सारे गाँव जँगल मर चुके
सारी प्रकृति माज़ी हो चुकी



सारी तीसरी दुनिया बनी परमाणुविक गड्ढा
जिस पर खड़ा होगा अमेरीकी सैन्य अड्डा



सिंगूर नन्दीग्राम में जगतसिंहपुर में
दादरी औ’ कुडनकुलम में
नियमगिरी छत्तीसगढ़ में
आँखों में लहू की लताएँ
पनप उट्ठी दहक उट्ठी भट्ठियाँ
बाँग्ला, तमिल, ओड़िआ,
कुई, हिन्दी खड़ी बोली
सब ज़बानों में
गूँजता है वही गीत —



‘गाँव छोड़ब नाहीं, जंगल छोड़ब नाहीं !’