Last modified on 4 अप्रैल 2015, at 18:29

देह-उपल / प्रतिभा सक्सेना


धार में हम बह नहीं सकते!
उपलमय यह देह,
अटकाती रही हर बार!
तरलता अंतर सिमट कर रह गई-
बरबस बिखर कर
ढह नहीं सकते .


हवाओं के साथ,
कुछ संदेश लहरें दे गईँ,
लिख छोड़तीं गीली लकीरें .
लौट कर फिर बह गईं .
जमे तट पर,
फेन औ' स्फार भरते
माटियों के जटिल रूपाकार .
बुद्बुदों में छोडते निश्वास
थिर हो रह नहीं सकते!


तलों की रेत मथती है,
उमड़ते वेग की
असमान गतियों में .
सिहरते, कसकसाते कण उमड़ते,
फिर समा जाते वहीं चुपचाप .
खुल कर बह नहीं सकते!


जमे रहना ही नियति
इस धार को देते सहारे.
जा रहा बढ़ता अरोक प्रवाह,
जल हिलकोरता
छल- छल सम्हाले .
रुको पल भर -
टेर कर कह यह नहीं सकते,


उपलमय यह देह,
सारे बोध पहरेदार .
जागते अटका रहे हर द्वार .
चाहो लाख लेकिन
वेग के उत्ताल नर्तन
झेलते चिर रह नहीं सकते!
साथ में पर,
बह नहीं सकते!