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देह पक्षालन / अंजना टंडन

मन की ग्लानि का पुख्ता सबूत
अहम् के दायरे में छिपा रहा
तुम्हें गला ना सका,

गलने के लिए
पिघलना जरूरी था
और
चुक गया था
तुम्हारी
माचिसों का मसाला,

जानते हो ना
भरी हुई आँख की रगड़
दरअसल
चिंगारी की तड़प है,

जिरह के अंत तक भी
गर सुनाई दे गई
एक निर्दोष अश्रुपूरित कलकल
तो
चले आना सपाट
खोल रखूँगी कपाट
जैसे
किसी अर्थी को विदा कर
गंगोत्री के छींट के बाद
पवित्र हो देह चली आती है
किसी विश्वास के भीतर।