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दोराहा / अंजू शर्मा

यह तय था
उन्हें नहीं चाहिए थी
तुम्हारी बेबाकी
तुम्हारी स्वतंत्रता,
तुम्हारा गुरुर,
और तुम्हारा स्वाभिमान,

तुम सीखती रही छाया पकड़ना,
तुम बनाती रही रेत के कमज़ोर घरोंदे,
तुम सजती रही उनकी ही सौंपी बेड़ियों से,

वे मांगते रहे समझौते,
वे चाहते रहे कमिटमेंट,
वे चुराते रहे उपलब्धियां,
वे बनाते रहे दीवारें,

तुम बदलती रही हर पल उस ट्रेन में जिसके
चालक बदलते रहे सुबह, दोपहर और साँझ,

उन्हें चाहिए थे तुम्हारे आँसू
उन्हें चाहिए थी तुम्हारी बेबसी
उन्हें चाहिए थे तुम्हारा झुका सिर
उन्हें चाहिए था तुम्हारा डर,

वहां एक पगडण्डी
कर रही है इंतज़ार नए कदमों का
तय करो स्त्री आगे दोराहा है...