आज, एक ऊँचे टीले पर
पहुंच कर ठिठक गया हूँ मैं
उभर आती है
सिनेमा की रीलों जैसी फैली तस्वीरें
टिला वही है
मौसम वही है
कुछ भी बदला नहीं दृष्यबन्ध
पर दूर तक रेंगती तंग पटरियाँ
सर्पिली नहीं लगती
हवाओं में सर्द चुभन है पर मिठास नहीं
बादलों में वे ही रंग है
पर वो अंगड़ाइयाँ नहीं दूर तक फैली पर्वतमालाएँ
केवल तसवीर पैदा करती हैं
सपनों सी रंगरेलियाँ नहीं
अब मैं किसे दोषी समझूँ ?
अपने कदमों को…
अपनी दृष्टि को…
अपनी श्वासों को
… या अपनी आत्मा को ?