दोहा संख्या 281 से 290
चढ़त न चातक चित कबहुँ प्रिय पयोद के दोष ।
तुलसी प्रेम प्योधि की ताते नाम न जोख।281।
बरसि परूष पाहन पयद पंख करौ टुक टूक।
तुलसी परी न चाहिऐ चतुर चातकहि चूक।।282।
उपल बरसि गरजत तरजि डारत कुलिस कठोर।
चितव कि चातक मेघ तजि कबहुँ दूसरी ओर।283।
पबि पाहन दामिनी गरज झरि झकोर खरि खीझि।
रोष न प्रीतम दोष लखि तुलसी रागहि रीझि।284।
मान राखिबो माँगिबो पिय सों नित नव नेहु।
तुलसी तीनिउ तब फबैं जौं चातक मन लेहु।285।
तुलसी चातक की फबै मान राखिबो प्रेम।
बक्र बुंद लखि स्वातिहू निदरि निबाहत नेम।286।
तुलसी चातक माँगनेा एक उक घन दानि।
देत जो भू भाजन भरत लेेत जतो घँूटक पानि।287।
तीनि लोक तिहुँ काल जस चातक ही के माथ।
तुसी जासु न दीनता सुनी दूसरे नाथ।288।
प्रीति पपीहा पयद की प्रगट नई पहिचानि।
जाचक जगत कनाउड़ेा कियो कनौड़ा दानि।289।
नहिं जाचक नहिं सेग्रही सीस नाइ नहिं लेइ।
ऐसे मानी मागनेहि को बारिद बिन देइ।290।