गंगा मैली हो गयी, धोते-धोते मैल ।
रेती पर प्यासा खड़ा, शंकरजी का बैल ।।
ऋण की लकुटी टेकता, लोकतंत्र लाचार ।
आन-बान के अश्व पर, बैठा भ्रष्टाचार ।।
द्युति राधा घन श्याम नभ, दें ऐसा आभास ।
श्री की वर्षा के लिए, रचा प्रकृति ने रास ।।
टप-टप-टप बूँदें पड़ीं, गर्मी पर प्रतिबन्ध ।
धरती से आने लगी, सोंधेपन की गन्ध ।।
रिमझिम-रिमझिम कर रही, पानी की बौछार ।
जैसे किसी अदृश्य का, बजने लगा सितार ।।
जब-जब रसवर्षण करें, पृथ्वी पर सारंग ।
मन पुष्पित-पुष्पित लगे, पुलकित-पुलकित अंग ।।
बूँद टँगी आकाश में, लिये इन्द्रधनु-रूप ।
कमलपत्र पर जब गिरी, मोती बनी अनूप ।।
तन-मन झंकृत कर रही, सुबह गुनगुनी धूप ।
पवन ठिठक कर देखता, उसका कांचन रूप ।।
सूर्य स्वयं दुबका पड़ा, घन का कम्बल ओढ़ ।
जैसे बिस्तर में पड़े, हम घुटनों को मोड़ ।।
कौड़े पर बैठे हुए, करें बतकही लोग ।
बिधना ने जो लिख दिया, मेटे मिटे न सोग ।।
स्वागत में ऋतुराज के, बिछे पर्णकालीन ।
वन्दन-अभिनन्दन करें, दिशि-दिशि भ्रमर प्रवीन ।।
देख धरा-वैकल्य को, आ पहुँचा ऋतुराज ।
नवकोपल के वस्त्र से, लगा ढाँपने लाज ।।
नयी कोपलों से हुआ, वट लज्जा से लाल ।
पीपल ताली पीटता, देख विटप के हाल ।।
फूलों पर छायी हँसी, कलियों पर मुस्कान ।
पत्ती-पत्ती चंचला, सुन भ्रमरों का गान ।।
फुनगी-फुनगी हँस रही, पल्लव उगे नवीन ।
हर कोई रसवन्त है, रहा न कोई हीन ।।
आम्रकुंज में मंजरी, देती मदिर सुवास ।
कचनारी कलियाँ खिलीं, निरख-निरख मधुमास ।।
सरसों बूढी हो गयी, गेहूँ अभी जवान ।
झुन-झुन-झुन-झुन कर रहीं, देखो, अलसी जान ।।
पतझर और वसन्त से, प्रकृति बनी अभिराम ।
शिव-ब्रह्मा जैसे करें, अपना-अपना काम ।।