वह कउनि अजूबा नगरी हरदम
महर-महर महकतयि रहयि।
चँदरमा-सुरिज का किरनिन पर
तारागन ते अठिलान करयि।
गरमी सरदी का चूमि रही,
घामे पर छाहीं छायि रही।
अॅध्यरिया उजेरे का लपटी,
जगु जगमग-जगमग कीन करयि।
कुलकानि तमासा देखि रही,
खुलि-खिलि कयि कुमुद कमल फूले!
छा रितु का धरे ध्वड़इयॉ<ref>पीठ पर बैठना</ref> पलपल,
पर परागु बसन्तु बरसयि।
मुनि के कुमार गभुआर
स्वनहुले बारन की पटिया पारे।
बाघ की पिठयया पर नाचयिं,
उयि पुचकारयिं, उहु दुलरावयि।
न जुआनी हयि, न बुढ़ापा हयि
न घटी आवयि,न बढ़ी बाढ़यि।
परभातुइ निस-दिनु बना रहयि,
जो जयिस रहयि, सो तयिस रहयि!
सोने-रूपे का कलपबिरिछु
लहरायि जमर्रूद की पाती
हीरा-मोतिन की रसरिन मॉ
कस उड़न खट्वाला झूलि रहयि।
बिरवन पर पंछी झूलि-झूलि
सुन्दर परभाती गायि रहे।
वह सीतलि-मंद समीर,
सबयि व्यिरिया मा बहा करयि।
न पियास केरि तिरखा लागयि
न भूँख का कोई नाउॅ लेयि।
हॉ, आपुररूप अनन्दु भरा,
प्रानी-प्रानी सबु छका रहयि!
जयिसी द्याखउ तयिसी अपनी
अप्छरा, किन्नरी नाचि रहीं।
अपने पन मा बिरानपनु भूला
भॅवरा-अस मड़रान करयि!
न हियॉ कोई राजा-परजा,
न लखयि कोई लरिका-पुरिखा।
का, समानता की पटरी पर
बच्चा-बच्चा व्यल्हरान<ref>खेलना</ref> करिय!