धापी
जंगल से लकडिय़ां चुनकर
भूख से बिलबिलाते
बच्चों के साथ
अपने मन का दर्द
पालती है।
आज कह देगी
अपने आदमी से
जो दारू की
बोतल संग
पड़ा रहता है
खाट पर
हरदम,
'चुन ले कमबख्त,
कुछ लकडिय़ां
अपनी चिता के वास्ते।'
पर
घर आते-आते
वह अपने होंठ
सी लेती है
रोज की तरह
दिनभर की
गाढ़ी कमाई
पति-चरणों में
धर देती है,
क्योंकि
धापी
पति धर्म जो पालती है।
1989