रेत में मुरझा रही है नाव
सूखता है सूखा किनारा
देह से झरता पसीना
भाप बनकर उड़ रहा है
वह चाहती है प्रबल धारा
चेतना अटकती है यहीं
दूर से सुन पड़ रहा
स्वर बाँसुरी का
रेत में मुरझा रही है नाव
सूखता है सूखा किनारा
देह से झरता पसीना
भाप बनकर उड़ रहा है
वह चाहती है प्रबल धारा
चेतना अटकती है यहीं
दूर से सुन पड़ रहा
स्वर बाँसुरी का