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धूप / दिनेश कुमार शुक्ल

इन दिनों
धूप में अजब चिपचिपाहट है
धूप में चलो
तो लगता है समुद्र में तैर रहे हों

ये धूप है कि जुनून
जो चीखते रंगों के ज्वार-सा
भर गया है देह और आत्मा में

सूरज से चलकर
पूरे आकाश को भरती हुई
धूप ने छुआ धरती को
धरती पर फैलते
जहर और घृणा को
धूप ने छुआ

धूप ने छुआ
विगत की धूप को जो
छूट गयी थी कहीं-कहीं
गड्ढों में भरी पुरानी धूप

नयी, जहर छूकर आयी धूप ने
गड्ढों में भरी पुरानी
मटमैली धूप को छुआ

एक युवा माँ
अपने प्रेमी के चेहरे पर पड़ती धूप में
देख रही थी जीवद्रव्य की संरचना
और अपने पति का आतंक

एक चील धूप में
छपाछप तैरती
ऊपर से उड़ती निकल गयी

मुँह पर नकाब कसे
स्कूटर तेजी से दाबे
निकल गयी एक लड़की
धूप की मोम में
गर्म सुई-सी घुसती

बहुत निराश किशोर ने
धूप को अँजुली में भरा
तेजाब से जल गयीं हथेलियाँ

सूरज से पृथ्वी तक
धूप की चादरें तनी हैं
गँदली मटमैली हलकोरे भरती हुई
चादरें
छतों पर सूख रही हैं

धूप एक घाट है
जहाँ से सुरक्षित हम
देख सकते हैं
मटमैली उफनती गंगा की बाढ़ को
धूप की
गंगा मटमैली
बह रही है
काटती हुई कगार...

धूप
आकाश के कगार काट रही है
छपाछप
गिरता है आकाश हमारी आँखों में।