मुझे कहते मिट्टी सब लोग
धूल भी है मेरा नाम
रौंदने वाले जग को सदा
स्वयं मिट पहुँचाती आराम
जगत् के तलवों के ही तले
बसा करती हूँ मैं दिन रात
फूल से दिल पर प्रतिपल, मूक
बनी सहती रहती आघात
हलों से फड़वा कर उर नरम
कुदालों की खा तन पर मार
रूधिर की जगह उगलकर अन्न
बसाती सोने का संसार
कहा करता है सागर, झील,
सरित, सर जिनको अंध जहान
इसी कुचले दिल के वे पके
फफोले फूट पड़े अनजान
किन्तु उनसे भी तो अकृतज्ञ-
विश्व का ही होता कल्याण
युगों से उर का रूधिर निचोड़
जगत् को देती आयी दान
गूँजती रहती मेरी आह
किंतु वह भी बन कल-कल गान
दर्द की मीठी-मीठी गूँज
बना देती कवि को छविमान
काट मेरे कोमल तरू-बाल
मिलाता विश्व मूल में मूल
किन्तु बदले में वे झुक-झूम
दिया करते मीठे फल-फूल
दलित होने का बदला सदा
चुकाती कर खुद का बलिदान
खोजती उड़-उड़ प्रतिपल व्यग्र
पापिनी दुनिया का कल्याण
जनम-उत्सव में देती साथ
मना कर खुशियाँ; छा आकाश
मरण में भी ले लेती गोद
फेंक लपटों में भग्नोच्छ्वास
इन्हीं नैनो ने देखी अमा
इन्हीं ने झिलमिल पूनम रात
इन्हीं ने फूलों की बरसात
इन्हीं ने झरते पीले पात
युगों से सुनती आयी यहीं
पायलों की रूनझुन झंकार
युगों से सुनती आयी यहीं
करूण क्रन्दन, दारूण चीत्कार
मुझी से बने कोटिशः महल
मुझी से बनी सहस्त्र मजार
मुझी से निर्मित हो; फल-फूल
मुझी में मिल जाता संसार
रौंदता प्रतिपल जो जग आज
मुझे, मुझसे भी लघुतर जान
पूजता किन्तु वही जिस रोज
मन्दिरों में पाती स्थान
रौंदने वाला ही तब शीश-
झुका, माँगा करता वरदान
माँग मुझसे ही सुख की भीख
चूमता मेरे चरण जहान