मानव की अन्धी आशा के दीप! अतीन्द्रिय तारे!
आलोक-स्तम्भ सा स्थावर तू खड़ा भवाब्धि किनारे!
किस अकथ कल्प से मानव तेरी धु्रवता को गाते :
हो प्रार्थी प्रत्याशी वे उसको हैं शीश नवाते।
वे भूल-भूल जाते हैं जीवन का जीवन-स्पन्दन :
तुझ में है स्थिर कुछ तो है तेरा यह अस्थिर कम्पन!
डलहौजी, 14 मार्च, 1934