नई सदी के रंग में ढलकर हम याराना भूल गए
सबने ढूंढ़े अपने रस्ते साथ निभाना भूल गये
शाम ढले इक रोशन चेहरा क्या देखा इन आँखों ने
दिल में जागीं नई उमंगें दर्द पुराना भूल गए
ईद, दशहरा, दीवाली का रंग है फीका-फीका सा
त्योहारों में इक दूजे को गले लगाना भूल गए
वो भी कैसे दीवाने थे ख़ून से चिट्ठी लिखते थे
आज के आशिक़ राहे वफ़ा में जान लुटाना भूल गए
बचपन में हम जिन गलियों की धूल को चंदन कहते थे
बड़े हुए तो उन गलियों में आना-जाना भूल गए
शहर में आकर हमकॊ इतने ख़ुशियों के सामान मिले
घर-आंगन, पीपल, पगडंडी , गाँव सुहाना भूल गए