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नदी / ओमप्रकाश सारस्वत


वोह अपने स्त्रोत से संस्कृति का काव्य लिखती है
वोह अपनी धार से धऱती का भाग्य रचती है
नदी को सदियों की गाथा का गीत बनने दो
नदी को हंसने दो
नदी को बसने दो

जिन्होंने जब-जब नदियों को तिरस्कारा है
कि उनके पोत को मरुदस्युओं ने मारा है
नदी जो मिटती है इतिहास एक मिटता है
नदी जो घटती है भूगोल इक सिमटता है
नदी को सूत्र को हर-लहर-लहर खुलने दो
नदी को हंसने दो
नदी को बसने दो

नदी जो रोई तो सदियों की आँख रोती है
नदी जो रोई तो सम्पूर्णता डुबोती है
नदी ही उर्मि है रस है कि सत्य घटना है
नदी ही प्यास है इक आस दिव्य सपना है
नदी को जागृति के स्वप्न में निखरने दो
नदी को हंसने दो
नदी को बसने दो

नदी जो रेत हुई सोच सूख जाएगा
कि हम से करुणा का इक लोक रूठ जाएगा
नदी की आरतियाँ शाप हो दहाड़ेंगी
 धरा के पुत्रों पर अग्नियां उतारेंगी
धरा की पुत्री को स्वातंत्र्य से विचरने दो
नदी को हंसने दो
नदी को बसने दो


नदी यह नहर या विद्युत या जल नहीं होती
नदी यह धरती के प्रत्यक्ष प्राण होती है
नदी ही ढोती है चिन्तन की सारी गतियों को
नदी ही बोती है जग में विभिन्न रुचियों को
नदी को मन्त्रों की भाषा में सूक्त रचने दो
नदी को हंसने दो
नदी को बसने दो