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नदी / ओम पुरोहित कागद

चालणो
जीवन सार है
इण खातर
नदी बोली बाली
चालती रै‘यी !
चालती रै‘यी !
चालतां, चालतां
धरती री छाती ऊपर
पड्यै जै‘री तत्वां नै
पचाया
पण मीठी रै‘यी ।
नदी रो पल्लो छोड‘र
जठै‘ई पाणी ठै‘रयो
खारो
चरको
कसैलो
डीलगाळियो
जेड़ा विसेसण जुटाया
अर लोगां स्यूं
हेत तोड़लियो
पण
नदी सागर स्यूं
हाथ मिलाँवतां तक
मीठी रै‘यी
क्यों कै
नदी चालती रै‘यी।
नदी स्यूं अळगो होय‘र
आळस रै बस
पाणी जद
धरती री गोदी मांय
लुक‘र सोयो
खुद सोचो
कै लूणियो बण
बो किण नै भायो ?
अर नदी
सागर स्यूं मिल
पाछी निकळ‘र भी
मीठी रै‘यी
क्यों कै
नदी चालती रै‘यी।