जब झपक जाती हैं थकी पलकें जम्हाई-सी स्फीत लम्बी रात में,
सिमट कर भीतर कहीं पर
संचयित कितने न जाने युग-क्षणों की
राग की अनुभूतियों के सार को आकार दे कर,
मुग्ध मेरी चेतना के द्वार से तब
नि:सृत होती है अयानी एक नन्ही-सी शिखा।
काँपती भी नहीं निद्रा
किन्तु मानो चेतना पर किसी संज्ञा का अनवरत सूक्ष्मतम स्पन्दन
जता देता है मुझे,
नर्तिता अपवर्ग की अप्सरा-सी वह शिखा मेरा भाल छूती है,
नेत्र छूती है, वस्त्र छूती है,
गात्र को परिक्रान्त कर के, ठिठक छिन-भर उमँग कौतुक से
बोध को ही आँज जाती है किसी एकान्त अपने दीप्त रस से।
और तब संकल्प मेरा द्रवित, आहुत,
स्नेह-सा उत्सृष्ट होता है शिखा के प्रति :
धीर, संशय-हीन, चिन्तातीत!
वह चाहे जला डाले।
(यदपि वह तो वासना का धर्म है-
और यह नन्ही शिखा तो अनकहा मेरे हृदय का प्यार है!)
शिलङ्, मार्च, 1945