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नयी किरणें / महेन्द्र भटनागर

फटते जाते / हटते जाते
सदियों की छायी
मूक उदासी के बादल !
मानों रूई के हलके
श्वेत बगूले फूले-फूले
आँधी में उड़-उड़ जाते हों !
मेरे मन की जड़ता के,
तम के, घोर निराशा के
बेछोर समाये उमड़े बादल
उर-नभ में छितराये जाते हैं !

जीवन की तमस-निशा के बाद
दिवाकर की किरणों में
बोल रहे खग,
खोल रहे अलसाए दृग !
भाव-लहरियों से पूरित सरल हृदय
दुख-वीणा के स्वर लय !

प्रतिध्वनि सुनता हूँ
आज नये जीवन की,
अंतर की अभिनव धड़कन की !
युग-युग के सोये भाव मधुर सब
धीरे-धीरे जाग रहे हैं,
कर्कशता के बर्बर प्रहरी
उलटे पैरों भाग रहे हैं !
उठता है अब भावी का परदा,
जिसकी पृष्ठभूमि पर
गत-जीवन के चित्रा
अनेकों टूटे-टूटे,
बेजोड़, अधूरे, धुँधले
देते हैं साफ़ दिखायी !

इस परिवर्तन को मुक्त बधाई,
जिसने शिथिल-शिराओं को
नव-तरुणाई की ज्वाला दी,
जीवन को जयमाला दी !