थोड़े अस्त-व्यस्त से दिनों में
बड़ी लकीर उभर आई थी
संशय की,
भरोसा अपनी अल्पजीविता में
रुक-रुक कर सांस लेता,
चौंकता-
भागती हुई परछाइयों से
प्रश्नों के रक्तबीज हैरान करते
अपनी उच्च पैदावार से
उत्तरों की फसलें भेंट चढ जाती
बाढ और सुखाड़ की
जब नहीं मिल पायी कोई ऋतू
किसी निश्चित तापमान में
तब पहाड़ होता मन
वालाओं को ठोस करता रहा
और सुनता रहा अपने ही पदचाप
पिछली पगडंडियों पर
श्रवण को शोरमुक्त करके
ताप पीकर जल गयी
धरती के भीतर की नदी जो
राख में सुलगती रही
किनारों की प्रेममुग्धता से
भरोसे के टूटे पत्थरों को गोल करते हुए
संशय हार ही गया अंततः
तुम्हारे आते ही!
किनारों से बंधते ही नदी ने
प्रेम के आप्लावन से श्रृंगार कर लिया
यही समय नियत रहा होगा
पुरानी अस्थियों के विसर्जन का
नव-सृजन का।