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नव वर्ष / अखिलेश श्रीवास्तव

नव वर्ष छुएँ आपको

जैसे पहली ओस ने छुआँ हो पाँखुरी को
पसीने से तर शरीर को छूती है
नदियाँ किनारे बाग से चलती हवा।

जैसे चाँद से चेहरे को
अम्मा के काज़ल ने छुआ हो
डिठौंना बनकर
जैसे हुलस कर आशीष में उठे पिता के हाथ
छूँ लेते हैं पूरे शरीर को
भले ही हमनें आधा झुककर छुएँ हो पाँव।
जैसे प्रार्थना के मंत्र छूतें हैं अवसादित मन pको
प्यासे, थके पथिक को छूँ लेता है
निर्जन सरोवर का जल।

या फिर ऐसे
जैसे बिस्मिल्ला ने छूँई हो शहनाई.

ऐसे बिल्कुल न छुए
जैसे नमक की बड़ी-सी डली छूती है
नवजात बिटियाँ के
कंठ, जिह्वा, तालू, श्वांस नली को
सवार हो जाती है नन्हीं-सी चीख पर
उसके शांत हो जाने तक।