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नशीली आशिया / आनंद खत्री

महज़ दो पल दिलासा है, हामी-तरंग साँसों में
सुकून कहते हैं फ़शाँ होगा, इस कदर नशा चढ़ कर
गले को घेर लेते हैं तुम्हारी जिन्स के बादल
सिहर बदन में उठाता है अगर कश तेज़ खींचे तो।

जलती हो और फ़ना हो जाती हो अंजाम से पहले
दबा के बुझाने पर भी सुलगती हो धुआँ देकर?
कभी अंगार पहुंचे नहीं बेसब्र लबों के चुम्बन को
नशा छू कर गुज़रता है हमारी नफ़स में घुलकर।

खराकती है मेरी साँसें तुम्हारी तासीर सिने में
कशों में खींचे हैं ये जज़्बात नब्ज़ों तक
रिहा धुएं के छल्लों में हमारा जवाब अंजाम को
बसी है रोष तपिश की हमारी सुर्ख आँखों में।

बेबसी इन्तजार की अजब तरह से पालें क्यों?
हॊश रहता नहीं हर बार तुमको सुलगने से पहले
ज़िन्दगी के नशीले तरीके बहुत दूर तक नहीं जाते
ये जिस्म भी क्यों फ़ना है इकरार से पहले।