Last modified on 21 अक्टूबर 2016, at 22:38

नहीं मरूंगी मैं / सुजाता

जाऊंगी सीधी, दाएँ और फिर बाएँ
आगे गोल चक्कर पर घूम जाऊंगी और
लौट आऊँगी इसी जगह फिर से

जब सो जाओगे तुम सब लोग
उखाड़ दूंगी यह सड़क और उगा आऊँगी इसे
समन्दर पर
गोल चक्कर को चिपका दूंगी
सड़क के फ़टे हुए हिस्सों पर

कुछ भी करूंगी
सोऊँगी नही आज

मैं मरूंगी नही बिना देखे काली रात सुनसान
लैम्प पोस्ट की रोशनी में चिकनी सड़कें
मरूंगी नही मैं
शांतिनिकेतन के पेड़ों की छाँव मेँ निश्चेष्ट कुछ पल पड़े रहे बिना
नहीं मरूंगी उस विद्रोहिणी रानी का खंडहर महल
अकेले घूमे बिना
मर भी कैसे सकती हूँ मैं
बनारस के घाट पर देर रात
बैठ तसल्ली से कविताएँ पढे बिना

नहीँ मरूंगी
किसी शाम अचानक पहाड़ को जाती बस में सवार हुए बिना
बगैर किए इंतज़ाम और सूचना दिए बिना
और फिर...

मैं लौटूंगी एक दिन
बिल्कुल ज़िंदा।