विदेश-प्रवास में
हम दोनों प्रवासी शब्द की तरह हैं
हेमचंद्र के शब्दानुशासन से परे
पाणिनी के अष्टाध्यायी के व्याकरण से दूर
शब्दकोश से परे
आखिर
मैं और तुम
शब्द ही तो हैं।
शब्द में साँस लेती धड़कनें
नवातुर अर्थ के लिए आकुल
सघन-घन कोश में
आँखें पलटती हैं मेघों को पृष्ठ-दर-पृष्ठ
कभी फूलों के पन्नों को उलट-उलट
सूँघती हैं सुगंध का रहस्य
कभी सूरीनाम और कमोबेना नदियों से
पूछती है अनथक प्रवाह का अनजाना रहस्य
हम दोनों
प्रवासी शब्द की तरह हैं
अधीर और व्याकुल
अंतःकारण के वासी
नाम
शब्द की तरह
ओठों की मुलायम जमीन पर खेलते हैं
स्नेह-पोरों से पलते हुए बढ़ते हैं शब्द
समय में समय का
हिस्सा बन जाने के लिए
अंश में अंशी की तरह
रहते हैं शब्द
जैसे विदेश में
समाया रहता है स्वदेश
जैसे मुझमें बसा रहता है तुम्हारा
जीवन बोध।