तुम्हें जो कुछ दीखता हूँ
अब,
वह नहीं हूँ मैं ।
एक अरसा हो गया
स्थूलता के पंख उग आए
धूप के पर्वत अँधेरी वादियों ने
नाम गुदवाए
ध्यान से देखो तुम्हें मालूम होगा
हर कहीं हूँ मैं
वह नहीं हूँ मैं
तुम्हें जो कुछ दीखता हूँ अब ।
आग का दरिया कभी भी
पीठ मेरी छू नहीं पाया
साथ देता कौन जब
संध्या ढले ही छिप गई छाय्सा
पस्त मस्ती जहाँ से भी बोलती है
हाँ ! वही हूँ मैं
वह नहीं हूँ मैं
तुम्हें जो कुछ दीखता हूँ अब ।