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निंदिया / शैलेन्द्र

पास देख अनजान अतिथि को —
दबे पाँव दरवाज़े तक आ,
लौट गई निंदिया शर्मीली !

दिन भर रहता व्यस्त, भला फ़ुर्सत ही कब है ?
कब आएँ बचपन के बिछुड़े संगी-साथी,
बुला उन्हें लाता अतीत बस बीत बातचीत में जाती
शून्य रात की घड़ियाँ आधी
और झाँक खिड़की से जब तब
लौट-लौट जाती बचारी नींद लजीली !

रजनी घूम चुकी है, सूने जग का
थककर चूर भूल मंज़िल अब सोता है पंथी भी मग का !
कब से मैं बाहें फैलाए जलती पलकें बिछा बुलाता
आजा निंदिया, अब तो आजा !
किन्तु न आती, रूठ गई है नींद हठीली !

1945 में रचित