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निदान / नरेन्द्र शर्मा

नहीं पनपते आज कल्पना के कोमल अंकुर!
शब्द वही, पर अर्थ नहीं वह; बदलीं परिभाषा!
आर्त्तनाद करती अभिलाषा, मूक बनी आशा;
तारकचुम्बी सौध-धाम स्वप्नों के क्षणभंगुर!

प्रस्तर थे वाचाल--नहीं अब मुरली में भी सुर!
सड़ा अचल जल और पड़ी मृतप्राय पवनश्वासा,
इन्दु डालता डोर, नहीं लहराती अभिलाषा;
नहीं बेधती दृष्टि भविष्यत, यद्यपि मिलनातुर!

कवि! बोलो, क्यों हुआ आज यह परिवर्तन असमय?
तारों-भरी वही रातें, क्यों खाली खाली मन?
बैठा काला साँप अमंगल, आसन बना हृदय--
क्यों अहि से अंधे बालक-सा खेल रहा यौवन?
जीवन की ज्योत्स्ना पर क्यों श्यामल निशान छाया?
वस्तुसत्य को छोड़, चूँकि सपनों को अपनाया!