हमने एकाकी रहने की
नियति अभागी पायी
अभिनंदन के लंबे-चौड़े
छंद न हम गा पाये
इसीलिये आँखों में हम
तिनके-सा खलते आये
गाँठों को सुलझाने में ही
उलझ-उलझ हम टूटे
जितना कसकर पकड़ा हमने
उतने रिश्ते छूटे
भरे उजाले में भी अब तो
साथ नहीं परछाई
अधिकारों की वसीयतों को
त्याग चुके हम कब के
भ्रम में सोये हुए नहीं हैं
जाग चुके हम कब के
तर्कों के तरकश ने लेकिन
सारे सच झुठलाये
आग लगाने वाले चेहरे
कहाँ सामने आये
हाथ उसी के जले हमेशा
जिसने आग बुझायी