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निरुद्देश्य / राजेन्द्र शाह

संसार में मेरा मुग्ध भ्रमण
धूल-धूसरित वेश में ।

कभी मेरा आलिंगन करती
कुसुम की सुरभि,
कभी मुझे पुकारती
कोयल की मधुर बोली ।

नयन बनते बावरे, निहार
निखिल के सभी रंग ।

मन मेरा ले जाए जहाँ, जाना वहाँ
प्रेम के सन्निवेश में ।
पथ नहीं कोई लिया, जहाँ धरूँ पग
वहीं बनाऊँ निज पगडंडी ।

तेज-छाया के लोक में प्रसन्न
वीणा पर पूरिया छेड़ ,
एक आनंद की जलसमाधि में
बहती जाए तरणी मेरी ।

मैं ही रहूँ विलसता सभी के संग और
मैं ही रहूँ अवशेष में ।
                          

मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : पारुल मशर