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निशाचर / नवारुण भट्टाचार्य


संतालिद बैंडल<ref>बंगाल के दो बड़े बिजलीघर</ref>एक -एक कर बुझ गये
एक निरीह आदमी अँधेरे मे‍ पैर रखता है
पैदल ही पार करता है मैदान पेड़ नदी
सारी रात तारे टूटते हैं
आदमी खड़ा रहता है उस स्वच्छ अँधेरे के वशीभूत


मुहाने पर तैरते नमक को मलता है धारीदार हाथ
दलदल में विशाल घड़ियाल मुँह खोले हुए है
आदमी जम्हाई लेता है उनींदी आँखों से
अवाक खड़ा देखता है कितने तारे टूटते हैं
वे भी क्या लड़खड़ाकर गिरते हैं शराबियों की तरह

यही चिंता उसे सता रही है
जहाँ सूरज डूबता है उस घाट से
शुरू होता है यह भवसागर
आकाश में लकड़ी का धुँआ, फटा हुआ चाँद ,
शंख और लोहे की चूड़ी
हवा में अगरू-गंध
घोंघे का टूटा खोल बेआवाज़ चीर देता है पाँव
कीचड़ में ख़ून चूसता है फिर भी आवाज़ नहीं


आदमी चलता जाता है उसे घेरे हुए
सारी रात तारे टूटते हैं
असल बात तो है ख़ुद को ऐसे ही खड़े रखना
कभी दीया बनकर या कभी मनौती की थाली बनकर
यह सब जानता है यह आदमी
जानता है कि खड़े रहने के लिए आगे रखने पड़ते हैं पैर
और पैर रखने से ही दिखती है दुनिया
उसके कष्ट लेकर मैं भी हो सकूँ उसकी तरह अकेला

संतालिद, बैंडल एक-एक कर बुझ गए
एक निरीह आदमी अँधेरे में रखता है पैर।
 

शब्दार्थ
<references/>